बवंडर

आज फिर मैंने एक बवंडर देखा
लहलहाते खेतों को होते बंजर देखा
उजड़ते बेजुबान बाशिंदों के घरो को,
जंगलों को काटकर बनते शहर देखा
भेड़िये को घुसते इंसान के अंदर देखा
...आज फिर मैंने एक बवंडर देखा

भाई को भाई के सिने में उतारते खंजर देखा
बाप को बेटी की उतारते इज्जत देखा
और अपनी ही माँओं को नोचते,
आवारा दरिंदों का मंजर देखा
....आज फिर मैंने एक बवंडर देखा

हकीम को जख्म में लगाते नश्तर देखा
काले कोट में छुपा खच्चर
देखा भ्रष्टता के तांडव का मंजर
देखा चौराहे पर भाषण देता,
सफेदपोश बन्दर देखा
नन्हें-नन्हें हांथों को खिलोनो की जगह
बनाते बारूद से घर देखा ....
आज फिर मैंने एक बवंडर देखा

जाती, धर्म, भेद-भाव का अंतर
देखा पंडित हो या मौलाना,
ग्रंथी या हो पादरी,
सबको उगलते जहर देखा
जुल्मों की काली रात,
आंसुओं की सहर देखी
नफरत की आंधियां,
खून का समंदर देखा
जिन्दा लाशों के ढेर,
इंसानियत का खंडहर देखा
....आज फिर मैंने एक बवंडर देखा